Sunday, August 18, 2024
सरकंडा और मेरा स्कूल टाइम
सरकंडा और मेरा स्कूल टाइम
साथियों सरकंडे से तो आप भली भांति परिचित ही होंगे।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जनपद बिजनौर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ आदि जनपदों में इसे सरकड़ा अथवा कहीं-कहीं पर झूंड भी कहा जाता है। हो सकता है सरकंडे को अलग-अलग प्रदेशों के जनपदों में अलग-अलग भाषा में पुकारा जाता हो। परंतु सरकंडा एक व्यापक शब्द है जोकि हिंदी भाषी प्रदेशों में लगभग सभी जगह प्रयोग में लाया जाता है। सरकंडे को उगाने का अधिकतर उपयोग उन जगहों पर होता था, जहां पर एक किसान के चक से दूसरे किसान के चक के बिच में अथवा गांव के कच्चे रास्ते के दोनों ओर बड़ी-बड़ी मेड, जिसे बिजनौर की स्थानीय भाषा में खंदक कहा जाता था, उन पर उगाया जाता था।
सरकंडा उगाने के अनेकों लाभ भी थे, साथ-साथ इससे नुकसान भी बहुत होते थे। पहले लाभ की बात करें तो, एक किसान के मवेशी दूसरे किसान के खेत में नहीं जा सकते थे। क्योंकि यहां पर एक दूसरे के खेतों को विभाजित करने के लिए सरकंडे की बाढ़ लगा दी जाती थी। यानी सरकंडा चक के बाढ़ के रूप में कार्य करता था। दूसरा सरकंडे की जड़े पानी से मिट्टी के कटाव को भी रोकने का कार्य करती थी। तीसरा सरकंडे का सबसे बड़ा उपयोग छप्पर बनाने में होता था। उस समय गांव में चाहे मजदूर हो अथवा किसान हो 90% लोगों के कच्चे मकान थे। अधिकतर छप्पर के घर हुआ करते थे। चाहे मवेशियों के लिए आशियाना हो अथवा मनुष्य का आश्रय हो सभी लोग छप्पर के घरों में ही अपना रहन-सहन करते थे। छप्पर बनाने में सरकंडे की पत्तियां उसका तना एवं उसकी डंठल जिसे मूंज कहा जाता था सभी उपयोग में लाई जाती थी। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि सरकंडा गांव के मजदूरों, किसानो आदि के लिए एक तरह से उस दौर की लाइफ लाइन थी। परंतु धीरे-धीरे गांव भी संपन्नता की ओर अग्रसर हो गए और कच्चे मकान एवं छप्परों की जगह पक्के मकान बन गए।
अब गांव में कहीं भी सरकंडे का छप्पर दिखाई नहीं देता है। पक्का मकान बनने के उपरांत एक बार ही अधिक लागत लगती है। उसके बाद व्यक्ति निश्चिंत हो जाता है बार-बार उसकी मरम्मत की आवश्यकता नहीं होती। इस कारण से लागत कम हो जाती है। परंतु जब सरकंडे से बने छप्पर हुआ करते थे उनको प्रतिवर्ष नए सिरे से उसको बनाना और बांधना पड़ता था, जिससे हर साल उसकी लागत में इजाफा हो जाता था। इस कारण से भी लोगों ने धीरे-धीरे छप्पर और कच्चे मकानों को बाय-बाय कह दिया और उनकी जगह पर पक्के मकान और आलीशान कोठियां बन गई। इस वजह से लोगों ने अपनी बड़ी-बड़ी मेड पर लगे सरकंडे के पौधों को समाप्त कर दिया है। सरकंडा उगाने से कुछ नुकसान भी होते थे। प्रथम यह पौधा अधिक दूरी में फैल जाता था, जिस कारण से खेती की जमीन कम हो जाती थी। द्वितीय जहां पर सरकंडे को लगा दिया जाता था, उसके दोनों और कम से कम दो से तीन मीटर तक पैदावार नहीं होती थी। इस कारण से लोगों ने अपने खेतों से सरकंडे को समाप्त कर दिया है। ग्रामीण रास्तों के दोनों तरफ जो सरकंडे लगे हुए थे, वहां पर प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना में गांव की सभी सड़कों का डामरीकरण होने के कारण सरकंडे को पूरी तरह से समाप्त कर दिया गया, और वहां पर पक्की सड़क बना दी गई इस कारण से अब गांव में भी सरकंडा दिखाई नहीं देता है। अब सरकंडा केवल नदियों के किनारे अथवा जहां पर बंजर भूमि है केवल वहीं पर दिखाई देता है। गांव में उस जमाने में कच्चे और छप्पर के घर हुआ करते थे। सरकंडे का मेरे जीवन से बहुत ही नजदीकी नाता रहा है। यह 70 का दशक था जब मैंने 1975 में कक्षा पांच उत्तीर्ण किया। अब मुझे कक्षा छ: मैं प्रवेश लेने के लिए अपने गांव बाहुपूरा से 8 किलोमीटर दूर बेगमपुर शादी उर्फ रामपुर (बिजनौर) में प्रवेश लेना पड़ा।
मैं अपने गांव बाहुपूरा से अकेला ही विद्यार्थी था जिसने आदर्श जूनियर हाई स्कूल रामपुर (बिजनौर) में कक्षा 6 में प्रवेश लिया था। मेरे गांव से कोई भी विद्यार्थी इस स्कूल में पढ़ने नहीं जाता था। उस समय परिवहन की कोई व्यवस्था न होने के कारण मुझे अपने गांव से अकेले ही पैदल स्कूल आना-जाना पड़ता था। अत्यधिक निर्धनता होने के कारण मेरे पास साइकिल की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। यह दूरी लगभग एक ओर से 8 किलोमीटर थी। यह स्कूली यात्रा मेरी जुलाई 1975 से शुरू होकर जून 1980 तक निर्बाध रूप से चलती रही।
स्कूल आने-जाने के लिए मौसम के हिसाब से मेरे दो रास्ते थे। ठीक उसी तरह से जिस तरह से जम्मू कश्मीर की राजधानी ग्रीष्मकालीन और शरदकालीन हुआ करती थी। एक रास्ता बरसात के मौसम का था जोकि बाहुपुरा गांव से चलकर आलमपुर, बान गढ़ी और रामपुर तक, दूसरा रास्ता ग्रीष्मकालीन और सर्दियों का था जोकि बाहुपुरा गांव से उत्तर-पूर्व दिशा की ओर एक पगडंडी जोकि खेतों से होकर श्री चंद देवता तक जाती थी, उसके बाद बान नदी पार करके धनौरी गांव होते हुए रामपुर तक। यह रास्ता मेरे गांव से धनौरी गांव तक पगडंडी का रास्ता था। जिसे शहरी भाषा में पगडंडी एवं बिजनौर की भाषा में बटिया कहा जाता है। धनौरी गांव से आगे रामपुर तक कच्ची रोड थी।
दोनों ही रास्तों पर मुझे सरकंडे से रूबरू होना पड़ता था। मेरा स्कूल सुबह 8:00 बजे लगता था जिस कारण से मुझे सुबह 7:00 बजे से पहले तैयार होकर घर से निकालना पड़ता था। दोनों रास्तों में ही बहुतायत में सरकंडे थे। बाहुपुरा गांव से आलमपुर (आल्लोपुर) तक कच्ची रोड थी जिसको बिजनौर की स्थानीय भाषा में लीक बोला जाता था। कच्चे रास्ते में अत्यधिक रेत होने के कारण जब बैलगाड़ियां अथवा भैंसा बुग्गी उस रेत भरे रास्ते पर चलती थी, तो उनके पहियों से रास्ते में गहरे गहरे निशान पड़ जाते थे, उसको लीक बोला जाता था। उस रास्ते के दोनों तरफ ऊंची- ऊंची सरकंडों की बाह होती थी। मेरे गांव से आलमपुर गांव तक सारे रास्ते में रेत ही रेत होता था। गांव के बाहर से निकलते ही सरकंडे से रूबरू होना पड़ता था।
बरसात का मौसम समाप्त होने के बाद सितंबर और अक्टूबर महीने में स्थिति भयंकर होती थी। उस समय सरकंडे की पत्तियां लंबी-लंबी और बड़ी होती थी। वह पूरे रास्ते को दोनों तरफ से घेर लेती थी, सरकंडो के पत्तियों के ऊपर ओस की बूंदें ऐसी लगती थी मानो मोती लटक रहे हो। जब सूरज की किरणें निकलती थी और उन बूंदों पर पड़ती थी तो बूंदें प्रिज्म की तरह कार्य करते हुए रंग बिरंगी और मनमोहक लगती थी। उस समय उस रास्ते को पार करना बड़ा कष्टदाई होता था।
सुबह-सुबह जब मैं स्कूल जाता था तो साथ में एक डंडा रखता था। उस डंडे से सरकंडे की पत्तियों पर लगी ओस की बूंदों को हटाता चलता था। जिससे मेरे कपड़े गीले नहीं हो पाते थे, यह कार्य रोजमर्रा का था। और इस तरह अपना रास्ता बनाते हुए आगे बढ़ता जाता था। आलमपुर से आगे निकलकर भी यही कार्य दोहराना पड़ता था । परंतु यहां पर रास्ते की चौड़ाई अधिक होने के कारण सरकंडा थोड़ा दूर होता था जिससे अधिक असुविधा नहीं होती थी। उस समय किरतपुर- नगीना मार्ग पक्का नहीं हुआ था यह कच्चा मार्ग ही था।
समान स्थिति तब होती थी जब मैं वाया धनौरी होकर स्कूल जाता था। उस रास्ते में भी सरकंडे से रूबरू होना पड़ता था। यह मेरे जीवन का बहुत ही कड़वा अनुभव था। कभी-कभी मेरे स्कूल जाने से पहले कोई बैलगाड़ी अथवा भैंसाबूग्गी उस रास्ते से निकल जाती थी, तो मुझे बहुत सुकून मिलता था। क्योंकि उनके पहले जाने से सरकंडे की पत्तियों पर लगी ओस की बूंदें नीचे गिर जाती थी। तब मैं आराम से निकल जाता था, परंतु यदि सुबह-सुबह पहले मुझे जाना पड़ता था तो उस समय बड़ी समस्या का सामना करना पड़ता था। स्कूल जाते-जाते मेरे कपड़े भीग जाया करते थे। मैं हमेशा अपने बस्ते (बैग) में एक पॉलिथीन का बैग रखता था। इस पॉलिथीन बैग में मैं अपनी सारी किताबें पैक करके रखता था, ताकि मेरी किताबें सुरक्षित रह सके। यह पॉलिथीन बैग बारिश से भी किताबों को बचता था। हालांकि बरसात के मौसम में मेरे पास एक छाता हुआ करता था परंतु उस समय छाते में पैराशूट कपड़ा प्रयोग नहीं होता था, सूती कपड़ा ही छाते में प्रयोग किया जाता था, जिस कारण से बरसात होने पर ज्यादातर पानी छाते के कपड़े में छनकर कपड़ों को भीगा दिया करता था।
सरकंडा सर्दी के मौसम में तो इस तरह से परेशान करता ही था, परंतु सर्दी निकालने के बाद मार्च अप्रैल में सरकंडे को काटकर एकत्रित करना पड़ता था। गांव के ग्रामीण परिवेश के सभी लोग बरसात आने से पहले अपने घरों के चप्परों को पुनः बांधने के लिए सरकंडा इकट्ठा कर लेते थे, जिससे बरसात के मौसम में आराम और सुकून से अपने घरों में जीवन व्यतीत कर सके। इसी वजह से अप्रैल और मई महीने में सरकंडे को काटकर उनके छोटे-छोटे बंडल जिन्हें बिजनौर की स्थानीय भाषा में पुले कहा जाता है, बना देते थे। मेरा भी इस कार्य में पूरा योगदान होता था। मैं भी अपने घर के छप्परों को दुरुस्त करने के लिए सरकंडे को काटता था। इसके बाद बरसात आने से पहले ही अपने घर के सभी छप्परों को नए सिरे से बांध देता था। इस कार्य में भी मुझे महारत हासिल थी। छप्पर को बांधना भी एक कला थी, जिससे बरसात के मौसम में छप्परों से पानी नीचे ना टपक पाए। गांव में सुंदर और टिकाऊ छप्पर बांधने के अच्छे कामगार बहुत ही कम होते थे।
दयाराम सिंह भामड़ा
हरिद्वार
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