1580 ई0 में मुगल बादशाह अकबर ने फारस से कुछ कालीन बुनकरों (Bhuiyar / Kori) को अपने दरबार में बुलाया था। इन बुनकरों ने कसान, इफशान और हेराती नमूनों के कालीनें अकबर को भेंट की। अकबर इन कालीनों से बहुत प्रभावित हुआ उसने आगरा, दिल्ली और लाहौर में कालीन बुनाई प्रशिक्षण एवं उत्पाद केन्द्र खोल दिये। इसके बाद आगरा से बुनकरो का एक दल जी0 टी0 रोड के रास्ते बंगाल की ओर अग्रसर हुआ। रात्रि विश्राम के लिए यह हल घोसिया-माधोसिंह में रूका। इस दल ने यहाँ रूकने पर कालीन निर्माण का प्रयास किया। स्थानीय शासक और बुनकरों (जुलाहों) के माध्यम से यहाँ कालीन बुनाई की सुविधा प्राप्त हो गयी। धीरे-धीरे उत्तर प्रदेश के जुलाहे इस कार्य में कुशल होते गए। वे आस-पास की रियासतों मे घूम-घूम कर कालीन बेचते थे और धन एकत्र करते थे।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के व्यापारी इस कालीन निर्माण की कला से
बहुत प्रभावित थे उन्होने अन्य हस्तशिल्पों का विनाश करना अपना दायित्व समझा
था लेकिन कालीन की गुणवत्ता और इसके यूरोपीय बाजार मूल्य को देखकर इस हस्तशिल्प
पर हाथ नहीं लगाया। 1851 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने धीरे उत्तर प्रदेश के बने कालीनों
को विश्व प्रदर्शनी में रखा जिसे सर्वोत्क्रष्ट माना गया। अर्न्तराष्ट्रीय
बाज़ार में कालीन के 6 मुख्य उत्पादक हैं- ईरान, चीन, भारत, पाकिस्तान, नेपाल, तुर्की। नाटेड कालीन निर्यात का 90 प्रतिशत ईरान, चीन, भारत और नेपाल से
होता है जिसमें ईरान 30 प्रतिशत, भारत 20 प्रतिशत और नेपाल का हिस्सा 10 प्रतिशत है। कालीन निर्यात का 95 प्रतिशत यूरोप और
अमेरिका में जाता है। अकेले जर्मनी 40 प्रतिशत कालीन आयात करता है। उत्तर प्रदेश
के कालीनो के निर्माण के सम्बन्ध में आश्चर्य जनक बात यह है कि यहा इस उद्योग
का कच्चामाल पैदा नहीं होता। केवल कुशल श्रम की उपलब्धता ही सबसे बड़ा अस्त्र
है। जिसके बल पर उत्तर प्रदेश अपनी छाप
विश्व बाज़ार में बनाए है।
Daya Ram Singh Bhamra
Daya Ram Singh Bhamra